रविवार, 4 अप्रैल 2010

माँ !

माँ सपने देखती है
कई बार टूटते हैं 
बिखरते हैं सपने
पर माँ कि आदत है सपने देखना,


बिखरे हुए सपनो को समेटना 
टूटे हुए सपनो को जोड़ना,


माँ सपने बुनती है
सपनो को ओढ़कर सोती है
छोटे छोटे सपनो में 
सिमटी है उसकी दुनिया,


मोम का ह्रदय 
रखती है वो सीने में
ज़रा सी आंच में 
पिघलने लगता है जो,

जब मैं छोटा था
मेरे बेशक्ल ज़ज्बात
और टूटे फूटे अल्फाज़
सिर्फ वो ही समझ पाती थी,


मेरी हर तकलीफ में 
आंसू बहाती थी
डरता था जब मैं
मुझे आँचल में छुपाती थी,


आज भी जब 
सख्त रास्तों से गुज़रता हूँ
तो माँ को याद करता हूँ
और फिर 
सख्त रास्ते भी 
मखमली कालीन बन जाते हैं,


ऐसी ही होती है हर माँ! 

4 टिप्‍पणियां:

  1. माँ के ऊपर लिखी हर कविता शानदार होती है...बहुत बढ़िया"

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  2. ye rachna bahut achchhi lagi ,
    आज भी जब
    सख्त रास्तों से गुज़रता हूँ
    तो माँ को याद करता हूँ
    और फिर
    सख्त रास्ते भी
    मखमली कालीन बन जाते हैं,
    maa to kadi dhoop me chhav ki tarah hoti hai ,uski tarah koi nahi .

    जवाब देंहटाएं
  3. मुझे याद करते ही हाजिर रहूंगी...

    माँ हूँ तेरी---मुँह से कुछ न कहूंगी.....

    जवाब देंहटाएं

NILESH MATHUR

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